क्या तीन तलाक को मान्यता देगा उच्चतम न्यायालय ?

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क्या तीन तलाक को मान्यता देगा उच्चतम न्यायालय ?सड़क पर जाती मुस्लिम महिलाएं

हमारे देश के मुस्लिम समाज में बदलाव की शुरुआत अदालत द्वारा शाह बानो को गुजारा भत्ता मंजूर करके हुई थी, लेकिन राजीव गाँधी सरकार ने उच्चतम न्यायालय के फैसले को निष्प्रभावी कर दिया। एक बार फिर तीन तलाक का मामला उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है। एक बार फिर सरकार की परीक्षा होगी जब वह अदालत में अपना पक्ष रखेगी। संविधान कहता है कि देश में महिलाओं और पुरुषों को बराबर के अधिकार हैं लेकिन मुस्लिम समाज की महिलाओं से शादी के पहले तो पूछा जाता है ‘‘कुबूल है” परन्तु तीन तलाक कहते समय फैसला एकतरफा कर लेते हैं। बदलाव मुस्लिम समाज स्वयं करेगा और कुछ महिलाओं ने तीन तलाक के खिलाफ़ संघर्ष छेड़ा है, कानूनी तरीके से।

तीन तलाक के मामले में मुस्लिम समाज भी एकमत नहीं है, न देश में और न दुनिया में। शिया मुसलमानों का बड़ा वर्ग इसे गलत मानता है जब कि भारत के सुन्नी मुसलमान इसे शरिया का कानून मानते हैं। यदि यह शरिया का कानून होता तो दुनिया के अधिकांश देश इसे गलत नहीं मान सकते थे। यहां तक कि पाकिस्तान जैसे देश में भी इसे कानूनी मान्यता नहीं है। कई बार हिन्दू या अन्य धर्मों को मानने वाली लड़कियां मुस्लिम लड़कों के साथ शादी रचाती हैं तो उन्हें पहले इस्लाम में धर्मान्तरित होना होता है और उससे भी कठिन बात है वे नहीं जानती कि उन्हें एक दिन तीन तलाक भी झेलना पड़ सकता है।

हमारा मीडिया चटखारे मारकर रेप, गैंगरेप, लूट, भ्रूण हत्या और दहेज उत्पीड़न की बातों पर ट्रायल करता रहता है लेकिन मलाला और लक्ष्मी की कहानियां संक्षेप में बता देता है। कहते तो हैं भारत में सर्वाधिक लोग लड़कियों को गोद लेना चाहते हैं, परन्तु गोद लेने की प्रक्रिया बेहद जटिल है। एक कड़वी सच्चाई है कि समाजसेवी संस्थाएं ही बच्चे गोद लेने की प्रक्रिया को जटिल बनाती है क्योंकि उनके आश्रम में बच्चे घटेंगे तो उनकी सरकारी ग्रान्ट कम हो जाएगी। लड़कियां चाहे इस धर्म के परिवार में जन्मी हों या उस धर्म के परिवार में, उन्होंने भेदभाव, अन्याय और हिंसा को लगातार झेला है।

बड़े होने पर मुस्लिम लड़कियों का जीवन और भी सीमाओं में बंध जाता है। सुरक्षा, सामाजिक तौर तरीके और व्यवसाय अथवा कॅरियर का चयन सब में सीमाएं हैं। जीवनसाथी तलाशने में भी सीमाएं हैं। इस बीमारी का इलाज स्वयं लड़के-लड़कियों को तलाशना होगा परन्तु यह तभी सम्भव होगा जब बुजुर्ग उनका विरोध नहीं करेंगे। कई बार मुस्लिम समाज में छोटी उम्र की लड़कियों की शादी और दौलतमंद या मिडिल ईस्ट के अधेड़ पुरुषों के साथ कर दी जाती है और इनसे पूछा भी जाता होगा ‘‘कुबूल है, कुबूल है, कुबूल है।”

भारत के मनीषियों ने कहा था कि जिस देश में महिलाएं पूजी जाती हैं वहां देवता रहते हैं। उन्होंने यह नहीं बताया कि जहां महिलाओं का अपहरण, बिक्री और बलात्कार होता है वहां कौन रहता है। ऐसा दिन नहीं होता जब अखबार वाले रेप और गैंगरेप की घटनाएं न छापते हों, टीवी वाले ना दिखाते हों। इस बात का महत्व नहीं कि पीड़िताओं का नाम क्या था, उनकी जाति, धर्म या शहर क्या था, महत्व इस बात का है कि हमारा समाज इसे रोकने में अपने को लाचार पाता है। पश्चिमी देशों में लड़के-लड़कियों को मिलने जुलने की आजादी है, वे अपना फ़ैसला खुद करते हैं। हमारे समाज ने रक्षात्मक रुख अपनाते हुए महिलाओं को पर्दे में डाल दिया अथवा बाल विवाह कर दिया। विरोध होता है खाप द्वारा गोत्र के नाम से अथवा ‘‘लव जेहाद” के नाम से।

चाहे तीन तलाक की बात हो, बाल विवाह की, दहेज, यौन उत्पीड़न या सामाजिक बन्दिशों की, एक ही इलाज है आधुनिक शिक्षा। किसी समाज के बुजुर्ग किसी वर्ग पर आसानी से अपनी पकड़ ढीली नहीं करेंगे, लोगों को अपने अधिकार हासिल करने होंगे। तीन तलाक के मामले में मुस्लिम महिलाएं अदालत सहित जहां कहीं रास्ता दिख रहा है, प्रयास कर रही हैं। देखना होगा कि तीन तलाक पर अदालत का फैसला क्या आता है और उस पर मुस्लिम समाज का रुख क्या होता है, सरकार क्या करती है। आने वाले फैसले का भी शाह बानो वाला हश्र तो नहीं होगा।

  

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